रूपम झा अपने नवगीतों के जरिये वर्तमान की विसंगतियों पर गहरा प्रहार करती हैं। उनके नवगीतों में प्रतिरोध और व्यंग्य का अनुपम समन्वय है। भाषा और शिल्प के मामले में भी सचेतनता दिखाई देती है। पढ़िए, उनके तीन नवगीत :
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सामने अमृत महोत्सव
सामने अमृत महोत्सव
पर हुए आजाद क्या
भुखमरी, बेरोजगारी, त्रासदी
पीठ पर बैताल बन कर है लदी
क्या घटा आक्रोश मन का
या घटा अवसाद क्या
दिन-ब-दिन
क्यों चुप्पियाँ केवल बढ़ीं
क्यों रही हैं
वेदनाएँ अनपढ़ीं
हैं मिले ये लूट भ्रष्टाचार ही
हम हुए आबाद क्या
क्या करी थी
इस सुबह की कल्पना
हर तरफ अब दिख रहा
कोहरा घना
जो गुलामी के अंधेरे
छाँट दे
है हुआ उस भोर का ईजाद क्या
गणतंत्र अधूरा है
राज मार्ग से जाकर कह दो
यह गणतंत्र अधूरा है
है किसान धरने पर बैठा
मजदूरों की बात नहीं
कैसा यह जनतंत्र कि जिसमें
जन की कोई बात नहीं
जो आधार विहीन दिख रहा
सारा तंत्र अधूरा है
भाषण में कोरी बातों का
हम करते सम्मान नहीं
काँप रही हैं भारत माता
पर कोई संज्ञान नहीं
ऐसे षड्यंत्रों में, उत्सव का
हर मंत्र अधूरा है
शोषण, दमन और उत्पीड़न
जन-जन का आधार नहीं
और करेगा नव भारत अब
इन सबको स्वीकार नहीं
जन का अगर जागरण ना हो
तो यह तंत्र अधूरा है
अमृत काल
है समय मायूस कितना
आदमी बदहाल है
यही अमृत काल है
झूठ राजा हो गया है
सच खड़ा असहाय है
कौन अब देगा सहारा
बिक रहा जब न्याय है
खो गए हैं प्रगति के पथ
हर तरफ हड़ताल है
डर रहे फिर से परिंदे
चुप खड़ा आकाश है
है पड़ी उम्मीद घायल
मर रहा विश्वास है
हर तरफ दाने बिछे हैं
हर तरफ ही जाल है
हर तरफ रंगीन सपने
रोज हमको ठग रहे
राम का धर भेष रावण
नींद से अब जग रहे
देश में धर्मांधता का
हर तरफ भ्रमजाल है
रूपम झा हिंदी व मैथिली में रचनाकार व अनुवादक के रूप में समान रूप से सक्रिय हैं। ‘चान ओलती ठाढ़ अछि’ उनका मैथिली दोहा-संग्रह है। देश की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में उनके गीत, ग़ज़ल, दोहे प्रकाशित हो चुके हैं।
मोबाइल नं. 70041 08267
वर्तमान परिस्थितियों में यह बहुत ही समसामयिक है।दीपावली की शुभकामनाएं।
राज कुमार सिन्हा
9424385139
जबलपुर, मध्यप्रदेश
आभार आपका!
बहुत सुंदर! 💐💐
समसामयिक संदर्भ अत्यधिक प्रासंगिक।नवगीत की हर पंक्ति प्रतिरोध और व्यंग की एक समन्वित इबारत जैसी है।भाषा और शिल्प की तो विद्वतजन जाने।नवगीत की रवानी और गेयता अनायास ही उसे सूक्तिवत कंठस्थ करने को बाध्य कर देती है।
बहुत बहुत बधाई रूपम झा को।
समसामयिक संदर्भ में अत्यधिक प्रासंगिक।नवगीत की हर पंक्ति प्रतिरोध और व्यंग की एक समन्वित इबारत जैसी है।भाषा और शिल्प की तो विद्वतजन जाने।नवगीत की रवानी और गेयता अनायास ही उसे सूक्तिवत कंठस्थ करने को बाध्य कर देती है।
बहुत बहुत बधाई रूपम झा को।
शुक्रिया सर!
आपने बेहद जरूरी टिप्पणी की है.
आगे भी यह सिलसिला जारी रहे.
सार्थक गीत