व्यंग्य / प्रवीण प्रियदर्शी

व्यंग्य लेखन में प्रवीण जी पुराने समय से महारथी हैं। समाज की गंभीर से गंभीर समस्याओं पर विचार करते हैं और व्यंग्यात्मक लहज़े में बहुत कुछ कह जाते हैं। वे बचते नहीं हैं, समकालीन विवादों को भी लेखन का विषय बनाते हैं। प्रस्तुत व्यंग्य को पढ़कर आपको अंदाजा लग जायेगा। 

पढ़िए, बौद्धिक समाज की आंतरिक दुनिया को सामने लाने वाला उनका एक व्यंग्य :

 

बुद्धिजीवी उवाच

अब सेमिनार वेबिनार में बदल गया है। कार्यशाला वर्कशॉप का रूप ले लिया। अब विद्वान अतिथियों को कहीं आने जाने की ज़रूरत बहुत कम होती है। ऐसे दौर में, हमेशा अतिथि के रूप में बुक रहने वाले बैकुंठ शुक्ला, रामशरण चौधरी और मनरूप यादव निठल्ले ही बैठे रहते हैं। अब उन्हें लोग वेबिनार में भाग लेने के लिए आमंत्रित करते हैं, जो महीने में एकाध–बार ही होता है। दरअसल उनके लिए कोई भी आयोजक एक भी छदाम खर्च करने के लिए तैयार नहीं होते हैं।

अब इन भारी-भारी विद्वानों की वैतरणी पार करने के लिए सोशल मीडिया ही एक सहारा है। तरह-तरह के सगूफे, सेल्फी डालते रहते हैं और दिनभर लाइक की आस में मोबाइल से चिपके रहते हैं। कमेंट के बक्से की ओर निहारते रहते हैं। ज्योंही कोई कमेंट करता है तो उसे एक मिनट के अंदर आभार भी भेज देते हैं।

ख़ैर, ज़माना बदल गया है तो बदले जमाने में उनकी भी आदतें बदली हैं। नामी–गिरामी यूनिवर्सिटी के एक पार्क में तीनों एक साथ बैठकर पुराने दिनों को याद कर घंटों हाँकते रहते हैं।

रामशरण चौधरी बताते हैं, अमेरिका के सेमिनार में किस तरह उन्होंने पूँजीवाद की धज्जी उड़ा दी थी। वे यह भी बताते हैं कि वामपंथ की दुर्दशा पर दिल्ली में बेबाकी से उन्होंने अपनी बात कम्युनिष्ट दिग्गजों के बीच रखी थी। सबों की बोलती बंद कर दी थी। सांच को आंच कैसा, भाई देखो सच कड़वा होता है लेकिन बोलने से न तो हिचकिचाना चाहिए और न ही डरना चाहिए।

नहले पे दहला देते हुए शुक्ला जी ने कहा, रामायण के वैज्ञानिक दर्शन पर उज्जैन में जब हमने विचार रखा तो शंकराचार्य हक्का बक्का रह गए थे। बहस में हमने हिन्दू मैथोडोलॉजी के कमजोर पक्ष पर भी विस्तार से चर्चा की थी। इस पर केंद्रित पंचजन्य में विस्तार से बायलाइन मेरा आलेख छपा था।

इस पर यादव जी ने कहा, अब के जमाने में युवाओं को कहाँ पता कि जेपी व लोहिया ने किस कदर देश की हिफाजत के लिए आंदोलन छेड़ा था। हाँ, कुछ चेले उनके ज़रूर भ्रष्टाचार के दलदल में फंस गए, लेकिन इन नेताओं में कुछेक तो दलितों व वंचितों की ज़ुबान बने। जो सामंतों व ब्राह्मणों के सामने खड़े नहीं होते थे वे आज हिम्मत के साथ अपने हक-हुकूक की बात कर रहे हैं। इतना ही नहीं, शासन प्रशासन में भी अपनी दखलअंदाजी दे रहे हैं, जो समाजवादियों की ही देन है। लेकिन लोग उनके महत्व को समझने में चूक कर रहे हैं। इसी नासमझी के कारण देश रसातल की ओर जा रहा है।

दरअसल, ये तीनों प्रौढ़ नस्ल के विद्वान हैं। जीवन भर सरकार की तिजोरी के बल पर अपना राजकाज सँभाला और विचारक सिंह के तौर पर गिलौरी सीकी पान खाते हुए आम आवाम के दुख को जुगाली की तरह माइक फूंको अभियान में सजीव तरीके से प्रस्तुत करते रहे। अब भी ये रिटायरमेंट के पैसे से ही अपनी शान-शौकत झाड़ते हैं और व्यवस्था को जमकर कोसते हैं।

हालाँकि तीनों विचारक तीन नाव में बैठकर अपने जीवन की नैया को खेते रहे। शुक्ला जी भगवान में खूब विश्वास करते हैं, तभी तो उनके अटृटालिकानुमा फलैट में सबसे ऊपर महावीर जी का पताका लहराती रहती है। रामशरण चौधरी देशभर में वामपंथी विचारक के तौर पर जाने जाते हैं और मनरूप यादव के बारे में कहा जाता है कि एक बार समाजवादियों व लोहियावादियों के चक्कर में साल भर तक नौकरी छोड़ जनता को जागरूक करते रहे थे। लेकिन राजनीति में अपना भविष्य गर्त में जाते देख फिर यूनिवर्सिटी में विराजमान हुए।

हालाँकि, मीडिया अब इन तीनों को कम तवज्जो देता है, इसलिए ये तीनों महानुभाव पत्रकारों को जमकर कोसते हैं और कहते हैं कि हमलोग हिन्दी अख़बार पढ़ते ही नहीं हैं। हिन्दी अख़बार और उसके पत्रकार पीत पत्रकारिता कर रहे हैं। लेकिन जब कभी इनकी एक पैरा ख़बर छप जाए तो ये उसे सोशल मीडिया पर शेयर करने से नहीं चूकते। इतना ही नहीं सौ–पचास फोटो कॉपी भी लोगों में बाँट देते हैं।

ये तीनों घर की चिंता से मुक्त हैं। और ऐसे भी रिटायर आदमी की घर में सुनता ही कौन है! अब देश की चिंता उन्हें ख़ूब सताती है। मंच तो रहा नहीं तो चबूतरे पर ही ताल ठोकते रहते हैं। शुक्ला जी गंभीर स्वर में चौधरी जी से कहते हैं, अरे अब भी तो चेतिये। चलिए हमसब अयोध्या चलकर रामलला का दर्शन कर आएँ। वहीं रहने व खाने का बढ़िया इंतज़ाम है। सरकार में अपने जान पहचान के कई लोग हैं।

इतना कहते ही चौधरी जी शुक्ला जी पर बिफर पड़े और कहा, बुढ़ापा में सठिया गए हैं आप क्या। देखिए हम धर्म के मामले में टाँग नहीं अड़ाना चाहते। धर्म व्यक्ति का निजी मामला है। हम किसी को रोकते नहीं लेकिन हमें इसमें मत घसीटिये। रही बात राम की तो ये सब नौटंकी है। आप ही कहते हैं कि भगवान कण-कण में विराजमान हैं। फिर भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा की नौटंकी क्यों? देश की जनता भेड़िया धंसान है। धर्म की रेवड़ी बाँट कर सरकार फिर से सत्ता पर क़ाबिज़ होना चाहती है। अगर ऐसा नहीं होता तो सरकार आम चुनाव से पहले बिना किसी मुहुर्त के रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का स्वाँग क्यों रच रही है? सब खेला चुनाव जीतने का है।

शुक्ला जी ने कहा, आप की बात में दम है लेकिन एक सवाल आपसे है कि 70 साल की सरकार में भगवान राम का मंदिर क्यों नहीं बन पाया। इस सरकार ने तो करके दिखा दिया।

चौधरी जी ने गुस्से में तमतमाते हुए कहा, क्या दिखा दिया। देश की बेरोज़गारी दूर कर दी। किसानों को सुविधाएँ दे दी। बेरोज़गारों को रोज़गार दे दिया। देश में फैक्ट्री खोल दी या फिर जल रहे मणिपुर में शांति बहाल कर दी। क्या किया बताओ, बताओ। अरे ये तो देश में अंध राष्ट्रवाद, धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा है। यह विकास की सरकार नहीं प्रचार की सरकार है।

दोनों के बीच शांति बहाल करने के उद्देश्य से मनरूप यादव ने कहा, देखिए देश में अभी संक्रमण काल चल रहा है। समाजवाद ही एक ऐसा रास्ता है जिसके सहारे देश के भविष्य को सँवारा जा सकता है। दलितों व वंचितों के हक की लड़ाई लड़ी जा सकती है। पूरे देश में नज़र उठा कर देखिए तो अब वामपंथ समाजवादियों के पीछे चलने में अपनी भलाई देख रहे हैं। आजादी पार्टी का भी अब समाजवादी ही सहारा दिख रहा है। इसलिए पूरे देश को संपूर्णता से समाजवादियों को स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसे भी हमलोग राम विरोधी कभी नहीं रहे। हमारी विचारधारा राम और वाम के बीच का रास्ता अपनाती है।

शुक्लाजी ने कहा, यादव जी, आप कुछ ज्यादा तो नहीं बोल रहे। अभी जो पार्टी भगवान राम का विरोध करेगा, उसका देश से सुफड़ा साफ हो जाएगा। सबकी बोलती बंद हो गई है।

चौधरी जी ने इंटरफेयर किया, आने वाला समय बदलाव व क्रांति का समय होगा। सबके सब धराशायी हो जाएँगे। हमलोग उम्मीद नहीं छोड़ते। सबों का पर्दाफाश होगा। और ये काम हमारी क्रांतिकारी पार्टी ही करेगी। और किसी में इतनी हिम्मत नहीं जो विरोध में तन कर खड़ा हो।

शुक्ला जी ने मंद मुस्कान के साथ कहा, इसी बात पर हम अड़ीबाजों को अड़ी पर जाकर कंपकंपाती ठंड से बचने के लिए गर्मागरम कॉफी पीनी चाहिए। देश पहले भी चल रहा था। आज भी चल रहा है और कल भी चलेगा। हमसब बस बौद्धिक जुगाली भर ही तो कर सकते हैं। अब तो हमबसों की चलाचली का बेला है। देश में अब तो झमेला ही झमेला है।

तीनों गर्दन हिलाकर अपनी सहमति देते हुए गप्पू की चाय दुकान पर पहुँच गए।


प्रवीण प्रियदर्शी जी पत्रकार हैं। उन्होंने हिंदुस्तान, प्रभात ख़बर, हरिभूमि जैसे कई हिंदी अख़बारों में काम किया। पत्रिकाओं का भी संपादन किया है। फ़िलहाल एक ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल NEWSVISTABIHAR.COM का संचालन कर रहे हैं।

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2 thoughts on “व्यंग्य / प्रवीण प्रियदर्शी”

  1. तीक्ष्ण ..!!
    बेहतरीन व्यंग्य रचना .. बातें बिल्कुल स्पष्टता के साथ सटीक निशाने पर ।

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  2. समसामयिक.घटनाचक्रों का फैलाव और कथन में नस्तर की अपेक्षा दिखती है.

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