दो कविताएँ / बंधु पुष्कर

वर्तमान में कविता जिस तरह से जनतांत्रिक और जनोन्मुखी होने की भूमिका का निर्वाह कर रही है, उतना शायद साहित्य की दूसरी कोई विधा नहीं है। कविता सबसे ज्यादा अनसुनी अनुगूँजों को जगह दे रही है। हाशिये के समाज के दुःख-दर्द की आवाज़ बन रही है। समाज की उन्हीं अनुगूँजों और दुःख-दर्द को प्रतिनिधित्व देती है बंधु पुष्कर की कविता। पढ़िए, उनकी दो कविताएँ :

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निजी अनुभूति

लोगों में बेहतर होने की बढ़ती ख़्वाहिशों के बीच
नहीं चाहता कोई बेहतरी ख़ुद की
अच्छा होना एक सामाजिक दबाव जैसा लगता है
और किसी किस्म के दबाव में नहीं
पहचाना जाना चाहता खुद का झूठा चरित्र

कोमल हाथों से तालियाँ पीटते
मासूम अधरों से मुसलसल जयकारे लगाते
सड़कों पर भक्ति गीत गाते लोगों को देखकर
उनमें शामिल न होना
ख़ुद के अधर्मी घोषित होने के लिए पर्याप्त है इन दिनों
तिस पर कोई टिप्पणी लिंचिंग के लिए उतनी ही काफ़ी

देह में उठती जुम्बिश एक छलावा है
बाहर बिकती जाहिलियत का जवाब
बस मौन रहकर देता हूँ सभ्य होने के अभिनय के साथ
ईमान की कीमत नीलाम होती है बाज़ार में
जिसे देख हृदय में पसरे सन्नाटे के सिवा
ख़ामोशी की कोई दूसरी ज़बान नहीं सूझती

दुचित्ते व्यवहार को झेलकर हर वहम-शाम में
जादुई शब्दजाल द्वारा फँस जाता हूँ हमेशा
वैसे वक्त अपने उन तजुर्बों को दोहराया जाना जरूरी हो जाता है जिसने जिंदगी का सलीका सिखाया
जीवन में कुदरती करिश्माओं पर यकीन करने जैसे मिथक को तोड़कर
जब मैंने चुनी थी अपनी निजी अनुभूति

जीने की ख़ातिर दो वक्त की रोटी या
हथेली पर दिनभर की रोज़ी रख दी जाने पर
हुक्मरानों के गुणगान में कसीदे लिखना
बनाता है तुम्हें देश का सच्चा सेवक और
अपनी निष्ठा किसी मठ पर बनाए रखना
घोषित करता है सच्चा देशभक्त

मुँह में ज़बान रखते हुए भी शांत रहने का हुनर आ गया है
समझौतापरस्त दुनिया ने सिखा दिया है
आँखों-देखा हाल का बयान
किसी जासूस की भाषा में न करना
न ही किसी तकनीकी हाथ से लिखना

सवाल करने के एवज़ में अपनी अगली पीढ़ियों के भविष्य का भय
सालता है अंदर तक
खूबसूरत शाम की दिलफरेब दास्तान सुनाने को नहीं सूझता कोई शब्द

ज़िंदा रहने के बदले में झूठा विनयगान अब मेरे बस में नहीं!

अप्रिय!

समाज को सबसे कम देने वाली चीज़ें
सबसे ग़ैर ज़रूरी बताई गईं
जिनसे मिलता रहा कुछ न कुछ
वे भी रहे कवियों के निशाने पर हमेशा

अगर दुनिया को ख़ूबसूरत बनाते फूलों की बात करें
तो गुलाब रहा माशूका ए लब
लहलहाती सरसों भी बनी रहीं असीम और सुंदर
आम में लगे बौर जैसे पेड़ों पर किसी ने फुलझड़ियाँ खिला दी हो
सेमल के फूलों पर भी कुछ न कुछ लिखा मिला ही

बेहया के फूल सदा पाते रहे तिरस्कार
जिस पर कविता लिखी एक तिरस्कृत कवि ने
पर पुटुस रहा महरूम एक–एक शब्द के लिए
उसी तरह हज़ारों जंगली फूल भी तरसते रहे
इन्हें दरकार रही नजरबंद किसी कवि की

समाज में सबसे अप्रिय चीज़ों को उपेक्षित कर अलगा दिया गया अछूत की भांति
जिनकी पीड़ा कराह बन निकली सदियों बाद उन्हीं के हाथों

समाज के कुछ प्रगतिशील साहित्य में
ब्राह्मणवाद का समर्थन रहा सबसे अनुचित और अमानवीय
इसके बावजूद उनका विरोध करने वाले दूर रहे अछूतों की कौम में शामिल होने से
उन्होंने इंसान न होना स्वीकार किया
और बच गए पूरे कुनबे सहित जातिद्रोह की ग्लानि से
बादलों से झाँकते इनके पितर इससे संतुष्ट हुए

उपेक्षित लोगों ने पाले सबसे गंदे व मैले पशु
जैसे सांप, सुअर, नेवले और लावारिस कुत्ते
समाज से दस गज दूरी बनाए वे करते रहे
सबसे घृणित काम
जैसे नाली, कचरा और मुंसीपाल्टी में सफ़ाई
उन्हें नहीं घेर पाई
माइग्रेन, शुगर, और अटैक जैसी कोई बड़ी बीमारी
वे तड़पते रहे
और चीखते रहे
बिना किसी राजनीतिक शोर के
वे मरते रहे
मलेरिया, टी.बी. और भुखमरी से

प्रेम, क्रांति, देह औ’ धर्म आज हैं सबसे लोकप्रिय विषय
जिन पर लिखे बिना नहीं पा सकता कोई कवि होने का दर्जा
मां, प्रेमिका, बाबा, मित्र, शिक्षक सबसे प्रिय रिश्ते-नाते
जिनके लिए उमड़ता रहा भर-भर स्नेह, आदर, मर्यादा या और कुछ
जिन्हें अता हुईं कई पंक्तियाँ या पूरा का पूरा साहित्य

मैंने आज तक पिता पर कोई कविता नहीं लिखी
वे मेरे अप्रिय लोगों में रहे हमेशा
जैसे मेरे दोस्त के लिए रहा उसका अंग्रेजी शिक्षक
जैसे किसी के लिए होगा कोई और

जहां कक्षा में बैठे, अप्रिय विषयों में
गणित ने रुलाया
हड़प्पा में कंकाल ढूँढते अवशेषों ने खूब उबाया
भौतिकी बनी किसी के लिए ख़ामोशी का कारण
पर लोगों की पसंद में सबसे ऊपर भी रही
वहीं हिन्दी सबसे आख़िर में पसंद की गई
विभागीय कोरम पूरा करने की औपचारिकता या अतिरिक्त विषय की तरह
क़दम दर क़दम होती रही उपेक्षा का शिकार
जिसमें बात करना भी फ़िज़ूल और हल्का समझा गया
लेकिन उसी ने लिखी सब पर कविता

ठीक वैसे ही, मैं भी रहा उपेक्षित और अकेला
उसी पुटुस, पिता, नाली, सुअर और हिन्दी की तरह


बन्धु पुष्कर ने स्नातक व परास्नातक की पढ़ाई काशी हिंदू विश्विद्यालय से की है। अभी हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद के हिंदी विभाग में शोधार्थी हैं।

अध्ययन में उनकी रुचि निर्गुण–संत साहित्य, समकालीन कविता, हाशिए के विमर्श और दर्शन आधारित विषय हैं।

उनकी कविताएँ पाखी, वागर्थ, कथाक्रम, ककसाड़, जनपथ, परिंदे आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

मो. 639230239

ईमेल : Pushkar.bandhu@gmail.com

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