तीन कविताएँ / मरीना एक्का

भूमंडलीकरण के इस अंध–युग में जीवन का हर क्षेत्र प्रभावित हुआ है। नकारात्मक–सकारात्मक परिवर्तन हर जगह हुआ है। परिवर्तन की इस आंधी ने मज़दूर और कमज़ोर तबके को सबसे ज़्यादा चोट पहुँचाई है। उसके काम छिन जा रहे हैं, बसने की ज़मीन लूट ली जा रही है, मज़दूरी घटा दी जा रही है; उसके सामने मुसीबतों का दुर्लंघ्य पहाड़ खड़ा हो गया है। ऐसी स्थिति में उसका जीना दुश्वार होता जा रहा है। चाय बागान के ऐसे ही मज़दूरों की व्यथा–कथा को मरीना एक्का जगह देती हैं अपनी लेखनी में। पढ़िए, उनकी तीन कविताएँ :

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इन दिनों

जंगल, पहाड़ काट कर
हमने बसाए चाय बागान

अब वे हमें बसाना चाहते हैं
माचिस की डिब्बियों जितनी छोटी कोठरियों में

हमने अपने हाथों से पत्तियाँ तोड़
सारे जहाँ में चाय की महक फैलाई

अब वे हमारे हाथों को बाँधना चाहते हैं
पत्तियों को मशीनों के हवाले कर के

हमने बनाये खेत
और चारों ओर हरियाली फैलाई

अब वे हमें ही सिखाना चाहते हैं
हरियाली का मतलब
हमारी चरागाहों में भी बागान लगाकर

हमने ही गाय, बकरी पाल-पोसकर
दूध से पोषित किया उनके बच्चों को

अब वे ही हमें कुपोषण का शिकार बनाने लगे हैं
हमारा खून चूसकर

बिचौलिए

बिचौलियों का काम ही होता है
बीच में फ़ायदा उठा ले जाना

मीटिंग-मीटिंग कहकर बुलाते :
वेतन बढ़ाने की मीटिंग
राशन बढ़ाने की मीटिंग
चाय फैक्ट्रियों के सामने
बड़ी संख्या में मज़दूरों को एकत्र कर
खींच ले जाते तस्वीर
और दिखाते अपने बड़े नेताओं को
कहते…
हमारे पक्ष में हैं इतने मज़दूर

मीटिंग- मीटिंग कहकर बुलाते :
जरूरी सुविधाएँ दिलाने की मीटिंग
काम का समय घटाने की मीटिंग
कंपनी के मैनेजर की कोठी के सामने
बड़ी संख्या में मज़दूरों को एकत्र कर
हस्ताक्षर करा ले जाते खाली काग़ज़ों पर
और अगले दिन ख़बर आती
चाय मज़दूरों ने सरकार से प्राप्त
सुविधाओं का किया बहिष्कार

ये वही बिचौलिए हैं,
जो कंपनी के मैनेजर तक
मजदूरों की बात सीधे नहीं पहुँचने देते
ख़ुद को ज़बरदस्ती दोनों के बीच का मध्यस्थ बनाकर
उठा ले जाते सारा फ़ायदा
मैनेजर और मज़दूर दोनों को
बातों में गोल-गोल घुमाकर
मैनेजर की नज़रों में समझदार बाबू बनकर
और अपने को श्रमिकों का मसीहा जताकर

बरसात

पिछली बरसात गुज़र गई
जैसे-तैसे
इस बरसात में क्या होगा?
घर बैठे सोच में डूबा हुआ है मंगरा
घर के टीन की छत पर
दिख रहे हैं कई जगह पर छेद
मुस्कुरा रहे हो वे जैसे
मंगरा की बेबस दशा को देखकर
इस बरसात से पहले
घर की छत की मरम्मत
करना तय किया था मंगरा ने
कुछ पैसे भी जमा हो चुके थे
कुछ और जोड़ने थे
पर हुआ कुछ यूँ कि
मंगरा को हो गया मलेरिया
और सारा जमा पैसा
हफ़्ते भर में हो गया ख़त्म
इसी के साथ घर की छत को
मरम्मत करने का काम
फिर टल जाता है
अगले बरसात के लिए


मरीना एक्का, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद के हिंदी विभाग में शोध छात्रा हैं। आदिवासी साहित्य, जीवन एवं संस्कृति की गहरी समझ है उन्हें।

ईमेल : marinaekka0@gmail.com

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7 thoughts on “तीन कविताएँ / मरीना एक्का”

  1. अच्छी कविता मरीना। तुम्हरी समझ और भाषा दोनों सशक्त हो रही है। लेखन जारी रखो।

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  2. शोषण का भंडा फोड़ करती उम्दा कविताएं! बिचौलियो से तो निपटे सरकार इस कविता को पढ़ कर! बधाई मरीना

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