चार कविताएँ / कुमार विनीताभ

यह समय दिग्भ्रमित होने का है। व्यक्ति और समाज दोनों को उसके लक्ष्य की पटरी से उतार दिया गया है। सत्ता-व्यवस्था धर्मान्धता की बर्छियों व भाले से संवैधानिक मूल्यों को लहूलुहान कर रही है। ऐसी स्थिति में बहुत कम जगहें बची हैं खुलकर कह पाने की। कविता जैसी जनप्रिय माध्यम ही सहारा बनी हुई है।कुमार विनिताभ जी ने अपनी कविता में उस निर्भयता का परिचय दिया है। पढ़िए, उनकी चार कविताएँ  :

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कसाईबाड़ा

उत्सव की तैयारी
जोर-शोर से चल रही
ईद-बकरीद-होली
छूटने लगी गोली
ईश्वर के दरबार का पट खुला
लेकर बर्छियां-भाले
निकल पड़े
गलियों-सड़कों पर सारे
मूक मूर्ति निहारती है
कातर दृष्टि
श्रद्धालु-भक्तों की करतूत
मस्जिद का द्वार बंद
हो नहीं सका इंसाफ
इंसान कैसे करे माफ
क्यों करें नमाज अदा
यह भी याद रखें खुदा
धर्मस्थल बनते किला
चलाई जाने लगी गोलियाँ
पूजा कर लौटती
थरथराती बुढ़िया पर
बेकसूर निहत्थे उस्मान पर/भयभीत हो गए लोग-बाग
वेद, कुरान,
गुरुग्रंथ साहिब, बाइबिल
बाँच रहे गौरव-गान
यदा-कदा महसूस होता है
यह देश
लोकतंत्र बन सका नहीं
बन गया कसाईबाड़ा
यहाँ हर त्यौहार उन्मादी,
निरीह लोगों को
सांप्रदायिकता की
धधकती आग में झोंक देते हैं
धर्म और जाति के मदारी
गली-गली
चौक-चौराहे डमरू बजाते
सत्ता के गलियारे
व्यापारी
पशुओं की नहीं
आदमी की
मनुष्यता की हत्या कर
अपने बाजार का
विस्तार करना चाहता है

अधिकार

अब मैं
तुम्हारे सामने हूंँ
तुम मुझे डंडा से पीटते हो
जेल में बंद करने की
धमकी देते हो
आखिर क्यों?
मैंने क्या गलती की है?
यही न कि
मैं अपना हक माँगता हूंँ
खाने को अनाज
पीने को पानी
पहनने को कपड़ा
शिक्षा, रोजगार
और स्वस्थ जीवन के लिए
अधिकार माँगता हूँ
नहीं मिलने पर नारे लगाता हूंँ प्रतिरोधी आवाज़ों के साथ
अपने स्वर मिलाता हूंँ
नारे लगाता हूँ,
मैं पूछता हूंँ,
क्या तुम्हारे लोकतंत्र में,
सवाल करने का
अधिकार नहीं है?
यदि ऐसा है तो
तुम्हारा लोकतंत्र पंगु है
कानून अंधा है

अडिग रहना दोस्त!

सत्य, ईमान
और श्रम के बल पर
अपने पथ पर
चलते रहो-चलते रहो।
इस दुनिया की रीति है
कपटी, धूर्त
तथा मवाली
पहले तुम्हारा
मजाक उड़ायेंगे
फिर भी जो
तुम नहीं झुके तो
तुम्हारे साथ
दुश्मन की तरह पेश आयेंगे
तुम्हें मुकदमे में उलझायेंगे, अपमानित करेंगे
तुम पर
जानलेवा हमले करायेंगे
गर तुम्हारे पाँव
तब भी नहीं लड़खड़ाए
तुम नहीं रुके
तो देखना
एक दिन जन-सैलाब उमड़ेगा
तुम आगे
बहुत आगे निकल जाओगे
तुम्हारे मार्ग-अवरोधक
धुआँ–धुआँ हो जायेंगे
बस, एक गुज़ारिश है
तू अडिग रहना मेरे दोस्त!

अविनाश अशेष के प्रति (सिमरिया निवासी एक उभरते युवा कवि के असामयिक निधन पर)

अविनाश!
अनुजवत् मेरे मित्र!
आज तुम नहीं हो
फिर भी
मुझे यूँ लगता है कि
तुम मेरे आस-पास हो
यहीं हो, यहीं कहीं हो
बहती हवा में, फिजा में
तुम्हारे रंग-जोश
सब महसूस होते हैं
फिर भी सच है कि
तुम्हारा नश्वर शरीर नहीं है।
तुम नहीं हो
इसके बावजूद
यहाँ बैठे हर इंसान को
लगता है कि तुम यहीं कहीं हो।
अब जब तुम नहीं हो
विश्वास नहीं होता कि
तुम नहीं हो
ऐसा लगता है,
बार-बार ऐसा लगता है कि
अब मेरा मोबाइल बजेगा
रोबीली आवाज़ सुनाई पड़ेगी, दादा!
इधर कब आना है?
दिनकर पर विमर्श
साहित्य पर परामर्श शेष है।
जब तुम मिलोगे
कभी राह चलते
फ्रीडम पर सवार, कहोगे
आइये, सीधे घर चलें
और वह घर
जो किराए का मकान था
जहाँ रहती थी
कभी तुम्हारी दादी
वृक्ष से टूटे पत्ते की तरह
जो माया जाल में
उलझकर अटकी हुई थीं
किसी तरह काट रही थीं
अपनी शेष जिंदगी
मौत के इंतजार में,
मृत्यु के भय से मुक्त मुस्कुराते
आते-जाते नौजवानों के गाल सहलाते, पुचकारते-दुलारते दादी अम्मा मिल जाती थीं।
उनका इतना प्यार, दुलार, अपनापन
तुम्हारे कारण ही तो मिलता था
मुझे और मुझ जैसे
तुम्हारे स्नेही जन को।
अब जब तुम नहीं हो
तुम्हारे बगैर
घर के चौखट पर पाँव रखते, हृदय भर जाता है,
सच! आँखें डबडबा जाती हैं, हिम्मत टूट जाती है,
और हिम्मत टूटते समय
तुम बहुत याद आते हो।
मित्र! हम सबके लिए भी तो
यह जग किराए का मकान है, हम किराएदार हैं,
एक दिन इस संसार में
सब छूट जायेंगे
जो कुछ भी है, अपना या पराया
भोग्य या कि माया,
जिस पर बहुत गुमान करते हैं, वह काया, सब छूट जायेंगे।
मित्र!
तुम्हारा इंतजार करती
माँ सोचती है
आज बहुत डाँटना
अविनाश को देर से आने पर
वह दरवाजे पर बैठ
राह देखती है
आते-जाते लोगों से भरी सड़क उन्हें सूनी दिखती है।
तुम्हारे पिता
जो पिता से अधिक
तुम्हारे दोस्त थे-यार थे
बाप होने का अहसास होते ही तुम्हारे बेतरतीब जीने पर बिफर जाते थे
और जब पिता दोस्त होते थे
तब मुस्कुराते उठते थे
तुम्हारे बाइक पर सवार हो
चल देते थे
किसी छविगृह के द्वार पर,
कवि सम्मेलनों में तुम्हें ही
अपना प्रतिद्वंद्वी मान बैठते थे
आज वे बहुत उदास हैं
घर की बूढ़-पुरैनिया कहती हैं—
गजेंद्र अपने जन्म पर
इतना नहीं रोए थे
जितना आज रो रहे हैं
सच! अपनी पहली संतान के खोने का दुख वही जानता है,
जो उसे खोता है।
तुम्हारी जीवनसंगिनी,
तुम्हारे बच्चे, तुम्हारे नहीं होने का ख़्याल भी नहीं करना चाहते, उन्हें लगता है तुम यहीं हो,
यहीं कहीं आसपास
अभी आओगे
‘टू’ को बुलाओगे
अपनी पीठ पर बिठाओगे
आयुष को बगल में लिटाओगे
तुम्हारे नहीं होने से
होने वाली पीड़ा को
मन में दबाए तुम्हारी अर्धांगिनी अपने ‘झा जी’ को
एक नजर निहारते ही
खिलखिला पड़ेंगी।
मित्र!
आज तुम्हारी जन्मभूमि सिमरिया उदास है,
प्रवीण, मोनू-फिरोज के साथ,
शशिधर की खटिया का
चौथा पाँव अविनाश नहीं रहा
एक पाँव के खोने से खटिया तीन टाँगों पर टिक नहीं सकती तुम्हारी अनुपस्थिति
इन्हें कितना खलती है
कोई इनसे पूछे
यह और बात है कि
खटिया के मालिक ने
अपने आराम के लिए
दिल्ली हाट और
बनारसी घाट तलाश लिया है।
मित्र! तुम नहीं हो
तुम्हारे बगैर
शहर के साहित्यिक समारोह, दिनकर भवन सब गमगीन हैं कैदी इंतजार कर रहे हैं
बहुत दिनों से जेल में
नहीं हुआ है कोई कवि सम्मेलन
उनकी रचनाएँ मंच की, आयोजक की
प्रतीक्षा कर रही हैं।
मित्र!
तुम्हारी सहजता
तुम्हारा बेबाकपन
तुम्हारा रूठना
फिर मान जाना
रूठे यार को मनाना
बड़ों के सम्मान का सलीका
हमउम्र के साथ
मिलने का अंदाज-व्यवहार,
सब एक-एक साथी के
जेहन में मौजूद है
अब तक कोई भूला नहीं है तुम्हें, कोई भूलना चाहता भी नहीं
चाह कर भी
कोई भूल नहीं पाएगा
मेरे अजीज!
मैं तुम्हें खुद से दूर नहीं मानता, तुम हमसे दूर हो भी नहीं सकते,
जब तक हमारे विचार
मनुष्यता-समाज के
अंतिम छोर पर खड़े,
असहाय व्यक्ति की चिंता से चिंतित एकाकार हैं,
तुम हमारे बीच हो
तुम यहीं हो
हँसते-खिलखिलाते
दोस्तों-यारों से बतियाते,
बहस करते,
यहीं हो, यहीं हो, यहीं हो!


कुमार विनीताभ जी लम्बे समय से रचना-प्रक्रिया से जुड़े हैं। ‘जन सन्देश टाइम्स’, ‘जनपथ’, ‘युद्धरत आम आदमी’, और ‘नया पथ’ जैसी हिंदी की शिखर पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं। लेखक संगठनों से भी उनका जुड़ाव है। वे जनवादी लेखक संघ, बिहार के सचिव हैं।

मोबाइल नं. 8409063639

ईमेल vineetabhkumar@gmail.com 

 

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4 thoughts on “चार कविताएँ / कुमार विनीताभ”

  1. बहुत बेहतरीन और अच्छी कविताएँ हैं। आभार बलान पत्रिका का जो अभी के समय में इस तरह की जरूरी बातों कों लोगों के समक्ष रख रहें हैं।हौसला बढ़ा रहें हैं। इस तरह की बातों को लिखने से लोग बचने लगे हैं पर आभार उन प्रबुद्ध लेखकों का जो साहस के साथ लिखते हुए औरों को भी प्रेरित कर रहें हैं।

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  2. विनीताभ जी,आपकी कविता में वर्तमान सत्ता व्यवस्था के खिलाफ हुंकार है । आपने सच कहा कि — ईद-बकरीद-होली, छूटने लगी गोली।
    लोकतंत्र बन सका नहीं, बन गया कसाईबाड़ा। अब तो लोग सत्ता व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने में सौ बार सोचता है । बहुत -बहुत धन्यवाद और आभार आपका । आपकी कविता लोगों को हिम्मत और हौसला आफजाई करेगा ।

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